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एक आदमी दो पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता
पूरब से पच्छिम को एक कदम से नापता
बढ़ रहा है
कितनी ऊँची घासें चाँद-तारों को छूने-छूने को हैं
जिनसे घुटनों को निकालता वह बढ़ रहा है
अपनी शाम को सुबह से मिलाता हुआ
फिर क्यों
दो बादलों के तार
उसे महज उलझा रहे हैं?
(1956)
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